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आज अंतिम बार / अंकित काव्यांश

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आज अंतिम बार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

छीन ली जातीं उड़ानें मन परिंदों की यहाँ
नाप लें इच्छित गगन यह भाग्य में उनके कहाँ
इस हठी संसार में अपना मिलन सम्भव न था

त्याग कर संसार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

आँख में सपने संभाले कामना रोती रही
सिर्फ तन मन का हवन सी जिन्दगी होती रही
मुझको मेरी मुक्ति का अधिकार देना है तुम्हे

मांगने अधिकार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

छोड़ आया हूँ किनारे पर धुंआ उठते हुए
घाट पर मजबूरियों में लोग कुछ जुटते हुए
एक तेरा प्यार ही था पंचतत्वों से बड़ा

सौंपने वह प्यार तेरे द्वार पर आना पड़ा।