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आज अपने आप के अंदर गए / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
आज अपने आप के अंदर गए,
शर्म आई सर झुकाया मर गए॥
आईना चेहरों से पीला हो गया
ख़ून देने के लिए पत्थर गए॥
इक कुआँ सूखा, मिनिस्टर हो गया
सर टिकाने पाँव में सागर गए॥
आज भी पीते हैं अमृत राक्षस
बात विष की आई तो शंकर गए॥
तोड़ने दरियाओं की ख़ामोशियाँ
साहिलों की प्यास के कंकर गए॥
बह गए दामन तुम्हारा देखकर
अश्क पहली बार अपने घर गए॥
लहलहाती मंच की फ़स्ले-अदब
जानवर कुछ चुटकुलों के चर गए॥
मैं हूँ साहब माँ मुझे मुन्ना न कह
देख न, सब लोग कहकर सर गए॥
जिस्म की सारी इबारत आपसे
आप तो परछाँइयों से डर गए॥
हो गया "सूरज" हवेली से रिहा
झोपड़े सब रौशनी से भर गए॥