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आज इकाई से माँ का दुख / राजपाल सिंह गुलिया
Kavita Kosh से
आज इकाई से माँ का दुख,
बनकर खड़ा दहाई।
पारुल बिटिया आज अभी तक,
कालेज से न आई।
झुँझलाती अम्मा फिर-फिर अब,
मँझले को हड़काए,
कोशिश करके देख फोन ये,
शायद अब मिल जाए।
तुझको खबर नहीं बेटा ये,
कैसा वक्त कसाई।
अनहोनी की शंका मारे,
विश्वासों को कोड़े।
दूर क्षितिज पर घिरे तमस में,
रवि के सातों घोड़े।
माँ की पीर लगे ऐसे ज्यों,
जूते बीच बिवाई।
कहने को तो हम सारे ही,
कानूनन अधिरक्षित।
जीने का अधिकार मिला पर,
कितने कहाँ सुरक्षित।
बापू कहता है अम्मा से,
दे लो और ढ़िलाई।