आज इस प्रहर? / आलोक श्रीवास्तव-२
कहाँ हो प्रिय तुम आज?
किस देश में ?
कैसी हो ?
याद करती हो क्या कभी नीले मेघों को ?
ठहरी लहरों में देखती हो कभी अपनी छाया ?
किसी उदास प्रेम की भूली स्मृति तो नहीं, पर
कुछ सुबह सफेद फूलों के दृश्य में डूबी
याद तो आती होंगी
वह जो सोचता था भूल नहीं पाएगा तुम्हें
प्यार एक कसक बनकर उसके साथ रहेगा ताउम्र
तुम्हें वह क्षमा नहीं करेगा
हमेशा तुम उसकी मुजरिम रहोगी
एक वसंत हमेशा
हमेशा लौटता होगा
अपने रंग, गंध हरीतिमा को समेट !
वह जो सोचता था
प्यार एक रंग है, जिससे बनता है एक पूरा मौसम
जिसका तुम वैभव हो
आज प्यार से परे सोचता है वह
कभी-कभी तुम्हारे बारे में भी
जैसे आज ही
तारों से रहित इस अछोर रात में
उसने न जाने हवा से, अंधेरे से
दिशा से, समुद्र से,
न जाने किससे
पूछा है तुम्हारे देश का नाम
तुम्हारे घर की राह
कोई भावना, कोई प्यार, कोई कामना
कोई दुख, कोई व्यथा नहीं,
बस यूं ही जाने का मन होता है
कि कहां हो तुम आज
इस प्रहर?