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आज की ये रात / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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आज की ये रात भी गुजरेगी मैखाने के साथ!
अब सुबह ही जाऊँगा घर को, कि पैमाने के साथ!

तू जो टकराना ही चाहे मुझसे टकरा इस तरह,
जैसा टकराया करे पैमाना, पैमाने के साथ!

तेरा क्या तू एक खुश्बू है ख़ुदी में बेख़बर,
तू गुलिस्ताँ में रहे, या मेरे वीराने के साथ!

तेरी-मेरी दास्ताँ है एक-जसी महताब,
तुझको क्यों ख़ूबी लगे है मेरे अफ़साने के साथ!

हर नफ़स में रातरानी, हर नज़र जैसे गुलाब,
कितना अच्छा लग रहा है आज वीराने के साथ!

जो न ख़ुद को पा सके हों, जिनको हो अपनी तलाश,
वो, कि मेरे साथ आयें यानी दीवाने के साथ!

यूँ-तो अपनों से भरी ‘सिन्दूर’ सारी कायनात,
लुत्फ़ ही कुछ और है, जीने का बेगाने के साथ!