भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज कुहरों में छिपी विश्वास की गंगा / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
आज कोहरे में छिपी विश्वास की गंगा।
हो गया उपहास का झीना बदन नंगा॥
हैं अधर कहते सदा ही प्यार की भाषा
हाथ पर करने लगे हर राह पर दंगा॥
एक मुट्ठी अन्न की दो घूँट भर पानी
पेट रीते हो गया इंसान अधनंगा॥
योजनाएँ कागजों की नाव पर चलतीं
हो रहा आश्वासनों से देश है चंगा॥
दिख कहीं जाती है चिनगी सत्य की
डाल देते हैं पड़ोसी बीच में पंगा॥