भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज चैत चढ़ गया / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
आज चैत चढ़ गया!
बन तो महके, हमीं न बहके;
आक, ढाक कोंपल, सब लहके;
पर, यह डैना कौन? कि पंचम में क्या तो पढ़ गया?
कहाँ गई, मिलना था जिससे?
खबर मिल रही यह अब किससे?
श्यामा रानी क हरकारा क्या कहता बढ़ गया?
अब भी है क्या चूल्हे पर ही?
बासी हुई कहाँ, होकर भी?
उबली कढ़ी, कटोरा छलका; रस ही सब कढ़ गया!
जल्दी कर, रे चोर चटोरे!
चौरे धर आ माल बटोरे;
जहाँ कटोरा चला कि तुझ पर-पर का भी मढ़ गया!