भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज ज़िंदगी समर भूमि में / हरिवंश प्रभात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज ज़िंदगी समर भूमि में
खोजे एक सहारा रे,
जिसको अपनापन दे डाला
मिलता कहाँ दुबारा रे।

हाथों की किस्मत दे डाली
मेहनत का फल दे डाला,
यादों के सिरहाने बैठा
जलधारों पर पलने वाला,
रीत गया दरिया का आँचल
बन गया मूक किनारा रे।

पतझड़ की कलियाँ सूखीं
एक बसंत की आशा में,
फिर भी खोज रहे तरुणाई
व्याकुल, विरह, हताशा में,
देखके अपने बाग की हालत
माली बना बेचारा रे।

कब बरसेगा रेत में बादल
या फिर प्रलय मचायेगा,
अपना खत भी नाव की भांति
जाने कहाँ बह जायेगा,
सागर से मिलकर बनता है
जब गंगाजल भी खारा रे।