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आज प्रार्थना से करते तृण तरु भर मर्मर / सुमित्रानंदन पंत
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आज प्रार्थना से करते तृण तरु भर मर्मर,
सिमटा रहा चपल कूलों को निस्तल सागर!
नम्र नीलिमा में नीरव, नभ करता चिंतन
श्वास रोक कर ध्यान मग्न सा हुआ समीरण!
क्या क्षण भंगुर तन के हो जाने से ओझल
सूनेपन में समा गया यह सारा भूतल?
नाम रूप की सीमाओं से मोह मुक्त मन
या अरूप की ओर बढ़ाता स्वप्न के चरण?
ज्ञात नहीं : पर द्रवीभूत हो दुख का बादल
बरस रहा अब नव्य चेतना में हिम उज्वल,
बापू के आशीर्वाद सा ही : अंतस्तल
सहसा है भर गया सौम्य आभा से शीतल!
खादी के उज्वल जीवन सौंदर्य पर सरल
भावी के सतरँग सपने कँप उठते झलमल!