भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज फिर आपने घर बुलाया हमें / कैलाश झा 'किंकर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर आपने घर बुलाया हमें
जेठ की धूप में दे दी छाया हमें।

यूँ शिकायत समय की भी करते नहीं
वक़्त ने ही तो आख़िर बनाया हमें।

लफ़्ज़ से ही बढ़ी है अदावत यहाँ
आँख ने प्यार से है बसाया हमें।

जिसने चाहा सरे-शाम बाज़ार में
घुँघरुओं की तरह भी बजाया हमें।

रात भर शायरों से थी महफिल सजी
पर किसी ने न "किंकर" जगाया हमें।