भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज फिर जब तुमसे सामना हुआ / नेमिचन्द्र जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कितने दिनों बाद आज फिर जब
तुमसे सामना हुआ
उस भीड़ में अकस्मात ,
जहाँ इसकी कोई आशंका न थी,
तो मैं कैसा अचकचा गया
रँगे हाथ पकड़े गये चोर की भाँति ।
तुरत अपनी घोर अकृतज्ञता का
भान हुआ
लज्जा से मस्तक झुक गया अपने आप ।
याद पड़ा तुमने ही दिया था
वह बोध,
जो प्यार के उलझे हुए धागों को
धीरज और ममता से सँवारता है,
दी थी वह करुणा
जिसके सहारे
आत्मीयों के असह्य आघात सहे जाते हैं,
सह्य हो जाते हैं-
और वह अकुण्ठित विश्वास
कि जीवन में केवल प्रवंचना ही नहीं है
अन्तर की अकिंचनताएँ प्रतिष्ठित
सहयोगियों की कुटिलता ही नहीं है,
किसी क्षणिक सिद्धि के दम्भ में
शिखर की छाती कुचलने को उद्यत
बैनों का अहंकार ही नहीं है-
जीवन में और भी कुछ है।
तुम्हारी ही दी हुई थी
वह अनन्य अनुभूति
कि वर्षा की पहली बौछार से
सिर-चढ़ी धूल के दबते ही
खुली निखरने वाली
आकाश की शान्तिदायिनी अगाध नीलिमा,
वर्षों बाद अचानक
अकारण ही मिला
किसी की अम्लान मित्रता का सन्देश,
दूर रह कर भी साथ-साथ एक ही दिशा में
चलते हुए सहकर्मियों का आश्वासन-
ये सब भी तो जीवन में है,
तुम ने कहा था ।

यह सब,
न जाने और क्या-क्या
मुझे याद आया
और एक अपूर्व शान्ति से
परिपूर्ण हो गया मैं
जब आज
अचानक ही भीड़ में
इतने दिनों बाद
तुम से यों सामना हो गया
ओ मेरे एकान्त !