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आज बाजी लगा एक तू हार की! / राधेश्याम ‘प्रवासी’

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कामना छोड़ कर जीत की बावरे,
आज बाजी लगा एक तू हार की!

फूल मुरझा गये, फल गिरे, पल्लवों की,
मनोहर जवानी नरम हो चली,
वह लचक मिट गई, शोखियाँ छिन गई
चार दिन की कहानी खतम हो चली,
देख करके प्रकृति मल्लिका को व्यथित
झूम करके बसन्ती हवा ने कहा,
देखना चाहती है बहारें अगर
दूँ सुना एक धुन और पतझार की!

कूल पर बैठ कर एक भूला पथिक
सिन्धु की हर लहर मौन गिनने लगा,
पर निराशा मिली सीप के रिक्त कण
कुछ बिखर थे गये शान्त चुनने लगा,
एक को हाथ में ले अतल अम्बु में
फेकनें वर लहर बन भँवर कह उठी,
गिन न लहरें यहाँ एक गोता लगा
थाह ले नाप तू आज मँझधार की!

रक्त से सन गई हर कदम पर धरा
लाश पर लाश ले मौत चुनने लगी,
बोटियाँ कट गई, बेटियाँ लुट गई
मूठ तलवार की भी टपकने लगी,

एक भी शीश तो झुक न पाया मगर
टूट करके धरा पर गिरा कह उठा,
चाहता है विजय तू अगर प्यार कर
जीत दिल, भावना त्याग प्रतिकार की!

आग भर कर लिये विप्लवी योजना
एक कवि क्रान्ति के गीत लिखने लगा,
व्योम जलने लगा मौत हँसने लगी
विश्व के नाश का साज सजने लगा,
भावना की हिमानी पिघल कर तभी
वह चली नाच कर गीतिका ने कहा,
सत्य की भूमि पर कल्पना के पथिक
आज आ चाहना छोड़ मनुहार की!

ध्वंस ने सर्जना से कहा बात सुन
धूल में बोल तुझको मिला दूँ अभी,
मुस्कराते हुए बाग पर मैं तेरे
आग के चन्द शोले बिछा दूँ अभी,
शान्ति ने मुस्करा कर कहा भूल मत
कब शलम को जला कर शमा बल सकी,
विश्व को बाँट दे सद्भावना
याचना कर्म से कर न अधिकार की!

तान कर वक्ष को चूमने को गगन
एक दिन एक अट्टालिका उठ पड़ी,
रख दिया पाँव पिंजर उठा चरमरा
दब गई पिस गई, मिट गई, झोपड़ी,

देख कर मग्न खँडहर उसे हँस पड़ा,
कह उठा, मूर्ख इतरा न इतना अधिक,
शान की यह रवानी रहेगी नहीं,
चाँदनी चैत की है दिवस चार की!

हर कदम पर हजार मिल सके मुझे कंटक,
हर लहर पर पड़ा भँवरों से वास्ता मेरा,
बहार आई भी गई भी मुझे ज्ञात नही,
यहाँ वीरानों में गुजरा है रास्ता मेरा!

दूर मंजिल के किसी राही का,
चूर मेहनत से पस्त पाँव बन के देखा है,
लुट गया जिनका है सब कुछ न पा सके कुछ भी,
ऐसी बाजी का मैंने दाँव बन के देखा है!

रो रहा श्रम जहाँ है आज शोषणों में फँसा,
रोती इन्सानियत है वहीं का निवासी हूँ,
क्रान्ति की राह पर सृजन की कामनाएँ लिये,
दूर मंजिल है चला बन के मैं प्रवासी हूँ!