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आज भी बैठी दिखी वह / कुमार रवींद्र
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आज भी
बैठी दिखी चुपचाप वह
सागर-किनारे
उड़ रहे जो उधर जलपाखी
उन्हीं को हेरती वह
संग उनके
किसी मछुए की महक को
टेरती वह
आँख में उसकी भरा जल
उसी से थे
कभी उपजे सिंधु खारे
देह उसकी कथा कहती
किसी पिछले छुवन-सुख की
वह सिहरती-
उसी सिहरन में बसी
घटनाएँ दुख की
शुरू होती कथा दुख की
जब गई थी
वह अकेली राजद्वारे
और था उसका मछेरा
इसी सागर में समाया
हर लहर में खोजती वह
अब उसी की
रोज़ छाया
कभी होती हंसिनी वह
कभी होती
जलधि-डूबे चाँद-तारे