आज भी / सोहनलाल सुमनाक्षर
कड़कड़ाते बादलों से
कँपकँपा जाता है मेरा दिल, कि
कहीं फिर से
किसी ज़मींदार का लठ
मेरे ऊपर न बरस पड़े
आज भी
इन बर्फ़-सी तेज़ हवाओं से
रोमांचित हो, पसीने से तर
हो जाता हूँ मैं, कि कहीं फिर से
बेक़सूर मुझे
समाज के ठेकेदार किसी केस में
फँसा न दें।
आज भी
सवर्णों के ये गली-कूचे
मेरे लिए संविधान की धाराएँ हैं
जिन्हें बिना उनकी इजाज़त के
शोधना— अपने को दोषी
बनाना है, फिर भी वे जो भी दंड दें
जानवर की तरह, मुझे स्वीकारना है।
आज भी,
यह गाँव, यह मन्दिर, यह पोखर
सब उनका है, और हम हैं उनके
पुश्तैनी ग़ुलाम—
जिन्हें उनके इशारे पर साँस लेना है
चलना और उनकी ख़िदमत करनी है
बिलकुल चाबी के खिलौने की तरह
चूँकि हम जानते हैं—
उनके सामने अपनी आज़ादी का
सवाल उठाना या फिर अपनी मनमर्ज़ी चलाना
अपनी खाल उधड़वाना है।
जिसकी, न्याय की अदालत में भी
सुनवाई नहीं।