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आज मज़लूम से ज़ालिम भी हिमायत माँगे / बिरजीस राशिद आरफ़ी
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आज मज़लूम[1] से ज़ालिम[2] भी हिमायत[3] माँगे
जाने इस दौर में क्या-क्या ये सियासत माँगे
लाख मालिक हो ख़ज़ानों का नहीं दे सकता
माँ किसी रोज़ अगर दूध की कीमत माँगे
घर की दीवार पे सीलन ने बनाई है जो शक्ल
मुझसे तन्हाई में वो मेरी मुहब्बत माँगे
आबयारी[4] के एवज़[5] मेरे चमन का माली
फूल से ख़ुशबू तो हर तितली से रंगत माँगे
ख़्वाहिशें पूरी नहीं होती हैं इन्साँ की कभी
बन्दा जब माँगे तो बस हस्बे-ज़रूरत[6] माँगे
ज़िन्दगी में तो ये मुमकिन[7] ही नहीं, ग़म से निजात[8]
ग़मज़दा[9] वक़्त से पहले ही क़यामत[10] माँगे
एक फुटपाथ के कोने में ठिठुरता बच्चा
चाँदनी रात में सूरज की तमाज़त[11] माँगे