भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज महाजन के पिंजरे में / नईम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज महाजन के पिंजरे में कैद सुआ है,
अभिशापित मनुवाँ बेचारा,
काम न आई दवा-दुआ है।

टूटी खाट जनम से अपनी,
अपलक रात जागती रहती,
इन खेतों से उन मेड़ों तक,
एड़ीं उठा भागती रहती।

भ्रष्ट व्यवस्था का आदम की
गर्दन पर खुरदरा जुवाँ है।

मनुपुत्रों की जात न पूछो
कल तक थे कंधों टखनों से,
आज भँवर में फँसे हुए ये-
हो न सके ये जन अपनों से।

मेहनत भी क्या मानी रखती?
साहस: सट्टा और जुआ है।

विधवाओं-सी सिसक रही ये
शंखध्वनि-सी भोर अभागिन
रातें स्याह-सफेद कर रहीं
संध्याएँ हो गईं बदचलन।

दाएँ है गहरी खाई तो,
बाएँ भुतहा अंध कुवाँ है।