भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज माँह दुआरी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज माँह दुआरी
बसंत जाग रहल बा।
बिर ज रहल बा।।
अपना कुंठित जीवन में,
से र इल जिंदगी में ,
ओकरा के विलमा ल।
आज खोल द हो खोल द
अपना हृदय के केंवाड़ी खोल द।
आज भुला जा हो भुला जा
अपना-परय के भेद भुल ज।
आज संगीत सुनावत आसमान में
अपना सुगंध के लहर उठे द
अपना सुगंध के लहर पहुँचे द।
आज वन-जभेंगल मेभें
पतई-पतई से
वेदना बोल रहल बा।
आज व्याकुल वसुंधरा
केकर पेंड़ा हेरे खातिर
दूर छितिज में
सजधज के बइठल बिया?
हमरा प्राण के छू-छू के
दखनही हवा बहतिया
दुआरी-दुआरी ज-जके
केकरा के खोजतिया?
सुगंध से पगलाइल रात
केकरा चरनन लोटाय ला
धरती पर जाग रहल बिआ?
हे सुंदर प्रियतम, हे कांत,
तहार व्याकुल आह्वान
केकरा खातिर बा?
तहार व्याकुल आह्वान
के कर रहल बा?