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आज मानव में बरखा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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आज मानव में
बरखा के रूप झलक रहल बा।
ऊ गरजत चल रहल बा,
भारी साज सजवले चल रहल बा।
हृदय ओकर तांडव नृत्य कर रहल बा।
ऊ सब बंधन तूर के धावत चल रहल बा।
कवना आघात से प्रेरित होके
मेघ से मेघ जब छाती मिलावेला
तब वज्र बाजे ला, बिजुरी कड़केला।
आज मानव में बरखा के रूप झलकेला।
झुंड के झुंड, दल के दल
एक का पाछा एक लागल,
दूर-सुदूर ले कहँ जल,
केने जाला, काहे जाला,
के बताई, ना जाने केहू, केहू ना जाने।
कुछ पता ना जे कवना महान पहाड़ का
अँगनाई में उतर के
घनघोर सावन के घन
गल-पिघल के जल बन जई?
के जानता
जे सावन धन के घनघोर समारोह में
कवन अइसन भयानक
जीवन मरन समाइल बा।
आज मानव में
बरखा के रूप झलक रहल बा।
ईशान कोन में
गुरु गंभीर आवाज में
कइसन कानाफूसी चल रहल बा?
कवन भवितव्यता
छितिज ओट में बइठ के
निस्तब्ध अंधकार में
मूक व्यथा के ढो रहल बा।
ना जानी जे कवन भयानक कल्पना
कवना रहस्यमय प्रयोजन से
घनघोर अन्हार का साया में
गहरात जा रहल बा?
आज मानव में
बरखा के रूप झलक रहल बा।