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आज मैं पहचानता हूँ / अज्ञेय

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आज मैं पहचानता हूँ राशियाँ, नक्षत्र,
ग्रहों की गति, कुग्रहों के कुछ उपद्रव भी,
मेखला आकाश की;

जानता हूँ मापना दिन-मान;
समझता हूँ अयन-विषुवत्ï, सूर्य के धब्बे, कलाएँ चन्द्रमा की
गति अखिल इस सौर-मण्डल के विवर्तन की-

और इन सब से परे, मैं सोचता हूँ, जरा कुछ-कुछ
भाँपने-सा भी लगा हूँ
इस गहन ब्रह्मांड के अन्त:स्थ विधि का अर्थ-
अथ!-रे कितनी निरर्थक वंचना की मोह-स्वर्णिम यह यवनिका-

यह चटक, तारों-सजा फूहड़ निलज आकाश-
अर्थ कितना उभर आता था अचानक
अल्पतम भी तारिका की चमक को जब
देखते ही मैं तुरत, नि:शब्द तुलना में तुम्हारे
कुछ उनींदे लोचनों की युगल जोड़ी कर लिया करता कभी था याद!

दिल्ली, 1943