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आज यह क्या हो रहा है? / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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आज यह क्या हो रहा है?
बोझ कष्टों का निरंतर राष्ट्र अपना ढो रहा है।

लग रहा स्वाधीनता के सूर्य को कैसा ग्रहण है?
जिस तरफ देखो विषैला दिख रहा वातवरण है।
सत्य है भयभीत, मिल पाती नहीं उसका शरण है,
क़ामयाबी के शिखर पर झूठ का हर आचरणहै।
हँय रहा अन्याय, पीड़ित न्याय प्रतिपल रो रहा है।
आज यह क्या हो रहा है?

त्याग-तप की भूमि पर है स्वार्थ का ही बोलबाला,
क़ैद हो कर रह गय तम-तोम के घर में उजाला।
सब दिशाओं में भड़कती जा रही विद्रोह-ज्वाला।
बाग़बां ही ख़ुद चमन में बीच विष के बो रहा है।
आज यह क्या हो रहा है?

जो मही विख्यात गंगा और यमुना की मही है,
विश्व के इतिहास में चर्चित सदी से ही रही है।
नित जहाँ अविराम गति से प्रेम की सरिता बही है,
हो रही अब आदमी के रक्त से रंजित वही है।
देश भारत स्वर्ग-सी गरिमा दिनोंदिन खो रहा है।
आज यह क्या हो रहा है?

मर मिटे हम, तब मिटा पाए गुलामी का अंधेरा,
किन्तु अब तक आ नहीं पाया यहाँ सुख का सवेरा।
भूख, बेकारी, ग़रीबी का लगा हर तरफ डेरा,
हाय! पतझर ने हमारे कुल चमन का आज घेरा।
लुट रहा धन-माल घर का और मालिक सो रहा है।
आज यह क्या हो रहा है?

दौर यह अपराध हिंसा, लूट का कबतक चलेगा?
देश यह आंतकवादी आग में कब तक जलेगा।
पाप का यह पेड़ कब तक और फूलेगा-फलेगा?
दर्द कब दिल का ख़ुशी के शुभ्र साँचे में ढलेगा?
वक़्त का हर प्रश्न यह झकझोर जन-मन को रहा है।
आज यह क्या हो रहा है?