भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज वो भी घर से बेघर हो गया / शीन काफ़ निज़ाम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज वो भी घर से बेघर हो गया
एक सहरा था समुंदर हो गया

पानियों में अक्स अपने देखता
कल का पापी अब पयम्बर हो गया

मैं रहा चमगादड़ों के गोल<ref>झुंड</ref> में
और वो जंगली कबूतर हो गया

अपनी परछाई के पीछे दौड़ता
वो घने जंगल से बाहर हो गया

कनखजूरे के क़दम बढ़ने लगे
ज़र्रा ज़र्रा जब मुखद्दर<ref>स्तब्ध</ref> हो गया

उससे मिलना मारके<ref>युद्ध</ref> से कम न था
चलिए ये भी मारका सर हो गया<ref>युद्ध निपट गया</ref>

शब्दार्थ
<references/>