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आज शाम मैंने ये चाहा / वत्सला पाण्डेय

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आज शाम मैंने ये चाहा
शब्दों से इक गगन सजाऊँ

सुंदर-सुंदर, प्यारे-प्यारे
चुन लूँ मैं शब्दों के तारे
कागज़ रुपी इस नभ पर
फिर इनको टांकु एक-एक कर

शब्द-कोष हाथों में लेकर
शब्दों को उसमें से छाँटा
एक-एक कर उन शब्दों को
पन्ने में कृतिका से टांका

अब शब्दों से सजा है ये नभ
भरा हुआ है हर कोना अब
पर चन्दा मैं किसे बनाऊँ
सोच रहा है मेरा ये मन

यही सोचकर एक बार फिर
शब्द-कोष को उलटा-पलटा
पर मैंने कुछ भी न पाया
कोई शब्द न मुझको भाया

किन्तु अनायस एक शब्द पर
ज्यों ही मैंने ध्यान लगाया
प्रीत,प्रेम,अनुराग,नेह बस
यही अर्थ मेरे मन भाया

अहा शब्द है बेहद मोहक
मन को देता मीठी ठंडक
मेरे हृदय ने कहा यही फिर
यही शब्द है मेरा चन्दा

ये बिलकुल आशा का कजरा
जूड़े में बेले का गजरा
इसकी महक है बड़ी निराली
महके जिससे डाली-डाली

बड़ी आस से इस चन्दा को
मैंने नभ पर टांक दिया है
इसकी धवल चांदनी को झट
अँजुरी में फिर बाँध लिया है

इस चन्दा को अँजुरी में भर
हुआ प्रफुल्लित मेरा ये मन...