भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज सबको ख़बर हो गई / कल्पना 'मनोरमा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज सबको ख़बर हो गई।
रोशनी बेअसर हो गई।

हम रदीफ़ों में उल्झे रहे,
काफ़िये में कसर हो गई।

खो गए इस कदर भीड़ में,
जिन्दगी दर-ब-दर हो गई।

दर्द को ज्यों लगाया गले
रात काली सहर हो गई।

फूल बोते रहे उम्र भर,
क्यों कंटीली डगर हो गई।

साथ माझी का जैसे मिला
साहिलों को ख़बर हो गई।

‘कल्प’ से यूँ ही चलते हुए
हर किसी की गुजर हो गई।