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आज सुनहली वेला! / महादेवी वर्मा

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आज सुनहली वेला!

आज क्षितिज पर जाँच रहा है तूली कौन चितेरा?
मोती का जल सोने की रज विद्रुम का रँग फेरा!

क्या फिर क्षण में,
सान्ध्य गगन में,
फैल मिटा देगा इसको
रजनी का श्वास अकेला?

लघु कंठों के कलरव से ध्वनिमय अनन्त अम्बर है,
पल्लव बुदबुद् और गले सोने का जग सागर है;

शून्य अंक भर-
रहा सुरभि-उर;
क्या सूना तम भर न सकेगा
यह रागों का मेला!

विद्रुमपंखी मेघ इन्हें भी क्या जीना क्षण भर ही,
गोधूली-तम का परिणय है तम की एक लहर ही,

क्यों पथ में मिल,
युग युग प्रतिपल,
सुख ने दुख दुख ने सुख के-
वर अभिशापों को झेला?

कितने भावों ने रँग डालीं साँसे मेरी,
स्मित में नव प्रभात चितवन में सन्ध्या देती फेरी,

उर जलकणमय,
सुधि रंगोमय,
देखूँ तो तम बन आता है
किस क्षण वह अलबेला!