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आठम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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जे तमिल व्याकरणमे ऋषिवर
दीक्षित छथि स्वयं सदाशिवसँ
गौरी-विवाहमे सभटा ऋषि
हिमखण्ड पहुँचला दक्षिणसँ

ऋषिगण भारसँ हिमालयक
आधार - संतुलनपर संकट
अयलै ते सुविचारित स्वरमे
कहलनि अगस्त्य ऋषिसँ शंकर:

हे ऋषि! अहँ दक्षिण विदा होउ
अछि पैघ अहाँमे आकर्षण
सान्निध्य अहँक पयबाक हेतु
जयताह संग अगणित मुनिगण

घटतै’ जनसंख्याकेर भार
हिम-क्षेत्र समस्या-मुक्त बनत
आ अहँक उपस्थितिसँ दक्षिण
प्रतिभा-पीयूष पाबि चमकत।’

कहलनि ऋषि: ‘हे देवाधिदेव!
केवल भाषाक समस्या अछि
अन्यथा दक्षिणक हेतु हमर
अर्पित उत्तरक तपस्या अछि’

अनुभव कयलनि शिव जे कि भाव
सम्प्रेषण भाषा टा करैछ
इंगितिक बले नहि संभव अछि
पूर्णाभिव्यक्ति, से सभ जनैछ

कहलनि शिव: ‘आउ, समस्या अछि
तँ आइ समाधानो भेटत
व्याकरणक आर्य-किरण पबिते
तमिलान्धकार निश्चय मेटत’

दहिना पाणिनि आ वाम भागमे
ऋषिके शंकर बैसौलनि
दूनू हाथे, दू टा डमरू-
डिम-डिम निनादमे डमकौलनि

वामासँ तमिल तथा दहिना
डमरूसँ संस्कृत ध्वनि-तरंग
निकलल; दूनू भाषा पौलक
शांकर वैयाकरणिक प्रबंध

ते ऋषि अगस्त्य दक्षिण अबिते
भाषाके व्याकरणित कयलनि
सह-स्रोत जन्य संस्कृत - प्रभाव
तमिलक भाषा-नदमे भरलनि

जनताक मनोरंजनक हेतु
ऋषिवर नाटक प्रचलित कयलनि
संगीतक मधु - शास्त्रीयताक
साहित्य-सुरभि घर-घर बँटलनि

रचलनि ऋषि लक्षण-महाग्रन्थ
भ’ गेल ‘अगस्त्यम्’ नामकरण
साहित्य, नाट्य, संगीत -विधा
पौलक आचार्यित अलंकरण

एके पुस्तकमे संग - संग
तीनू खण्डक छल समावेश
तमिलक वाङमयके ऋषि अगस्त्य
देलनि विकासमय समादेश

लोपासँ ऋषि वीणा - वादन
सिखलनि; आश्रम ध्वनि-मत्त भेल
किछुए दिनमे ई वाद्य - यंत्र
स्वर - महिमामे स्वायत्त भेल

कयलनि नियमित अभ्यास
राग - तानक निर्झर झहर’ लागल
भंगिमा - विविधता मूर्च्छनाक
अम्बर बनिक’ पसर’ लागल

ध्वनि - विज्ञानक भौतिकी मध्य
कयलनि ऋषि तांत्रिक शोध - कार्य
वीणा - वादनसँ पाथरके -
पघिला देलनि नियमनाचार्य

ई तथ्य भेल अति संवादित
भ’ गेल रावणक कान ठाढ़
ओ वीणा-वादनसँ शिवके
रिझबै’ छल बनिक’ कलाकार

दक्षिणमे छल रावणक राज
से ऋषिके नीक लगै’ नहि छल
आश्रम राक्षसक भूमिपर हो
मनके से बात रुचै’ नहि छल

ऋषिके बूझल छल जे रावण
अछि पंडित, योद्धा, तंत्रवली
कोनो सीमाधरि, शस्त्रास्त्रक
संचालनमे छल निपुण छली

यद्यपि अगस्त्य युद्धोक शास्त्रमे
आचार्ये कहबैत छला
द’ क’ दीक्षा अगणित नृपके
ओ समरभूमि पठबैत छला

छल अग्निवेश-सन महाबली
हुनकेसँ धनु-शास्त्रक दीक्षित
नहि जानि कतेको राजाके
धनु-विद्यामे कयलनि शिक्षित

युद्धक माध्यमसँ ऋषि तथापि
लोहा नहि लेब उचित बुझलनि
संगीत-युद्धमे रावणके-
पटका देबाक तर्क सुझलनि

रावणो स्वयंके सर्व-विजेता
मानै’ छल संगीतोमे
बजबै छल नीक-जकाँ वीणा
ते विश्वासी छल जीतोमे

संवाद ऋषिके पबिते आयल
वीणापर स्वर झंकृत करैत
पोदिय पर्वतपर शिविर लगा
बाजल ऋषिसँ रावण हँसैत:

‘बाजू हारब तँ की माङब?
जितबे तँ हमरा कथी देब?
की एक दोसरक स्वर-सिन्धुक
मूंगा मोती के हड़पि ेब?’

कहलनि ऋषि - ‘इतिहासक पन्ना
किछु स्थान सुरक्षित राखि सकत
जँ एक प्रतिज्ञा करी अहाँ
तँ पर्वत प्रतिभा जाँचि सकत

‘हारी तँ त्यागी राज-पाट
भागी सुदूर सिन्धुस्थलमे
जँ अहँ जीती तँ हम त्यागब
वीणा - वादन - सुखके पलमे

ब्राह्मण रतिो अहँ छी राजा
हम छी दरिद्र ब्राह्मण रहैत
अहँ भौतिक त्याग करब आ हम
त्यागब सारस्वत सुख हँसैत

‘दक्षिणमे अर्जित ई विद्या
दक्षिणे देशमे त्यागि देब
उत्तर भारत नहि जानि सकत
जे हम बीणोके साधि लेल’

बाजल रावण: ‘प्रारम्भ करू
ऋषिवर अगस्त्य संगीत-युद्ध
हो कला ठाढ़ साकार, भने -
परिणाम पड़य ककरो विरुद्ध

‘स्वीकार प्रतिज्ञा अछि, पूरब
चिन्ता अछि केवल एक शेष
जे के जाँचत सांगीतिक स्वर?
ककरामे छै क्षमता विशेष?’

कहलनि ऋषि - ‘पोदिय पर्वत टा
निर्णय करबामे सक्षम अछि
स्वीकार करी तँ मापदण्ड
एकटा विशेष विलक्षण अछि

जँ हमर राग-रंजना ठोससँ
तरल बनाबय पर्वतके
तँ मानी अहँ हमरा विजयी
आ त्यागी सिन्धूत्तर थलके

‘पहिने बजबै’ छी हम वीणा
अहँ देखू, सुनू, विचार करू
हम विफल होइ तँ अवसरपर
विजयी स्वरमे अधिकार करू

वीणाक तारपर आर्ष स्पर्श
कयलनि ऋषि नाद-ब्रह्म जागल
विविधता मूर्च्छना सुर-तानक
छल श्वास-ताल मदसँ मातल

संगीत विलम्बित शृंखलाक
दु्रत-शिखरित भेने क्षिप्र बनल
ध्वनि - ऊर्जासँ पाथर पघिलल
रावण ई देखि चमत्कृत छल

कयलनि ऋषि वादन बन्द पुनः
पाथरक तरलता ठोस बनल
तुम्मा सटि गेलै पर्वतमे
ऋषि-दृगमे विजय-बिम्ब उभरल

कहलनि-‘हे रावण! आब अहाँ
प्रारम्भ करू वीणा-वादन
पघिलय पोदिय पर्वत आ हम
वीणा निकालि पाबी, राजन!

भ’ गेल विफल सभटा प्रयत्न
पघिलल नहि रावणसँ पाथर
सटले रहि गेल ऋषिक वीणा
आङगुर घबाह भ’ क’ थाकल

कयलनि प्रारम्भ पुनः ऋषिवर
सटले वीणापर राग-नृत्य
पघिलल पोदिय, वीणा निकालि
कयलनि इतिहासक पैघ कृत्य

स्वीकार पराजयके कयलक,
रावण अविलम्ब गेल लंका
दक्षिण भारतसँ दूर भेल
बिनु तीर-धनुष दनुजक सत्ता

पसरल सागरधरि विजय-कथा
वन-प्रान्तर मुक्ति-गीत गौलक
वीणा-वादनमे ऋषि ख्याति
तमिलक साहित्यिक श्रुति पौलक

पाछाँ नहि रहलै’ शिल्प-कला
प्रस्तर-प्रतिमामे ठाम - ठाम
वीण - वादक ऋषिके चित्रित
कयलक शिल्पी - दल गाम - गाम

रावण छल पैघ प्रतापी नृप
ऋषि भौतिकतामे लघु छलाह
ते कतिपय मूर्ति - शिल्पमे ऋषि
वामन रूपे मूर्त्तित भेलाह

एही अभिव्यक्तिक एक मूर्ति
छल चिदम्बरम्मे अति चर्चित
जे भेल सश्रद्ध समाज मध्य
अतिशय पूजित, अतिशय अर्चित