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आठवीं ज्योति - सागर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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सागर! कितना विशाल उर
लेकर जग में आये हो!
उसमें भी कितने सुन्दर
मोती भर कर लाये हो॥1॥

ये मोती ही इस उर के
हैं भाव स्वच्छ औ’ निर्मल!
वर्द्धित करते रहते हैं
उसकी विशालता प्रतिपल॥2॥

लखकर विशालता यह प्रिय!
आश्चर्य हमें होता है।
जग में न अभी तक तुम-सा
उर का विशाल देखा है॥3॥

हम गोते लगा-लगा कर
मोती निकाल ले जाते।
अगणित, अमूल्य निधियों को
हम लूट-लूट ले जाते॥4॥

पर इसका प्रिय! तुम हमसे
बदला न कभी लेते हो।
यदि फिर जाते हैं लेने
तो झोली भर देते हो॥5॥

सुनते हम दानव-देवों
ने मिलकर हृदय तुम्हारा।
मथ कर चौदह रत्नों से
कर दिया सदा को न्यारा॥6॥

पर लेश मात्र भी चिन्ता
क्या हुई तुम्हें यह लखकर?
सह गये असह्य हानि को
छाती पर पत्थर रखकर?॥7॥

जग रे, तूने भी ऐसा
क्या सहनशील देखा है?
तू ही बतला ग्रन्थों में
आया किसका लेखा है?॥8॥

सृष्टि के आदि से मानव
तुमको करने में खाली।
है लगा हुआ पर तुम तो
वैसे ही वैभवशाली॥9॥

हाँ कभी-कभी छाती में
बड़वाग्नि धधक उठती है!
मानो वह प्रतिहिंसा की
क्रोधानल जल उठती है॥10॥

सरिताएँ शैल-शिखर से
जब निकल भाग उठती हैं?
लुकतीं, छिपतीं, घबरातीं
आ यहीं शीघ्र रुकती हैं॥11॥

शरणागत समझ उन्हें तुम
गोदी में भर लेते हो
कोई न खोज ले उनको
इस तरह छिपा रखते हो॥12॥

सँग में जो वे लाती हैं
छोटे टुकड़े पत्थर के!
उनको भी कर लेते हो
मोती तुम अपना करके॥13॥

नीले वक्षस्थल पर यह
जो श्वेत वस्तु दिखती है।
क्या खिले श्वेत पुष्पों की
उर पर माला लसती है?॥14॥

या नहीं श्याम-रंग में ही
रँगने से तन श्यामल है।
उस पर कौस्तुभ-मणि की यह
माला अपूर्व उज्ज्वल है॥15॥

अथवा भीषण बड़वानल
से उर जो दहक रहा है।
उसको शीतल करने को
यह चन्दन-लेप किया है?॥16॥

प्रातः रवि की जब पीली
किरणें तुम पर आ पड़तीं।
मानों वे गात तुम्हारा
गेरुआ वस्त्र से ढकतीं॥17॥

ऊपर तपता है दिनकर,
नीचे प्रतप्त बड़वानल!
दोनों के बीच तुम्हारा
तपता है गात सुकोमल॥18॥

किस हेतु सखे! करते हो
तुम ऐसी कठिन तपस्या?
सुलझाते हो तुम अपने
जीवन की कौन समस्या?॥19॥

x x x

जितना विशाल वक्षस्थल
उतना गम्भीर हृदय है।
इस मानव-जग में ऐसा
सुन्दर संयोग अलभ है॥20॥

जग रे! विशाल वक्षस्थल
वाले तुझ में भी होंगे।
गम्भीर हृदयवाले पर
उनमें कितने निकलेंगे?॥21।

जिनमें अपना भुज-बल है
वे साम्राज्यशाली हैं।
जो शोषण कर सकते हैं
वे ही वैभवशाली हैं॥22॥

जो निर्बल हैं क्या उनको
वे देख कभी सकते हैं?
अवसर मिलने पर केवल
धक्का-भर दे सकते हैं॥23॥

उनमें गम्भीर हृदय की
क्या झलक कहीं मिल सकती?
यदि पशुबल ही सब कुछ है
तो आत्म-शक्ति कब रहती?॥24॥

औ’ जो गम्भीर हृदय हैं
उनको न पूछता है तू।
वे मौन बनेरहते हैं
है मौन बना रहता तू॥25॥

उनकी गणना तो करता
है सदा निर्बलों में तू!
उनमें विशाल वक्षस्थल
वाले कब बतलाता हू?॥26॥

x x x

क्यों सखे! असीम, अपरिमित,
विस्तृत, अनन्त औ’ नीला।
रत्नों से जगमग करता
रक्खा यह रूप छबीला?॥27॥

क्या देख जगत् के ऊपर
जगमग करता नभ सुन्दर!
उर में यह प्रश्न उठा था
इसकी समता क्या भू पर?॥28॥

अथवा सोच-‘यह विस्तृत
सागर है स्वर्ग-लोक का।
उपहास कर रहा रत्नों
के मिस वह मर्त्य-लोक का॥29॥

बस इसीलिए धारण कर
यह रूप अनन्त मनोहर
भू के अभाव को लखकर
आये हो तुम इस भू पर?’॥30॥

x x x

क्यों हृदय तुम्हारा प्रतिपल
लहरें लेता रहता है?
क्या मुक्त आर्थिक चिन्ता
से मस्त बना रहता है?॥31॥

क्यों सदा पूर्णमासी को
ऊँची हिलोर उठती है?
क्या शशि को लखकर उर में
भावना उमड़ पड़ती है?॥32॥

अपना उर-रत्न गँवा कर
किसका न जगत् उजड़ा है?
उसके फिर दर्शन पाकर
किसका न हृदय उमड़ा है?॥33॥

तुम उठते उसे पकड़ने
जब देता वह दिखलायी
पर स्वार्थ-लीन सुर-पंजों
से देता कब पकड़ायी॥34॥

तुमको तो केवल उसकी
छाया-भर मिल जाती है।
इसलिए हिलोर हृदय की
हृद में ही रह जाती है॥35॥

प्रिय! तुम बस छाया ही से
सन्तोष किया करते हो।
छाती से लगा-लगाकर
कल्लोल किया करते हो॥36॥

x x x

रे स्वर्ग-लोक! तेरा भी
कितना निर्मम, निष्ठुर उर!
रे मर्त्य-लोक! इसको ही
कहता है क्या तू सुर-पुर?॥37॥