भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आठ आने का सिक्का / ब्रजमोहन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आठ आने का सिक्का ही जब खा जाए ईमान रे
कितने का फिर बचा रे भैया दुनिया में इनसान रे...

छोटे-छोटे सुख की ख़ातिर बेच रहा जो मन को
कितने नक़ली दुख देगा वो इस असली जीवन को
मन का खोकर चैन, ख़रीदी बच्चों की मुस्कान रे...

कैसी होड़ लगी कि पैसा आदम का भी बाप
झूठ बोलना पुण्य हुआ और सच बोलना पाप
पाप-पुण्य की कुर्सी के हैं बहरे दोनों कान रे...

ये न सोचा कि जीवन में क्यूँ इतना अन्धेर
नासमझी के चक्कर सारे, नहीं दिनों का फेर
कौन बनाए बाज़ारों का तुमको इक ’सामान’ रे....