भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आड़ू-बेड़ू-घिङारू / चिन्तामणि जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूल्हा सुलगते ही
घेर लेते थे माँ को
और चूल्हे को भी
लेकिन माँ के पास
आटा ही कितना होता था
बमुश्किल
आधी रोटी हिस्से आती थी
मडुवे की
आड़ू ने कभी
भूख का अहसास नहीं होने दिया

खेलते थे बचपन में
घंटों-घंटों तक
भूल कर सब कुछ
जब थक जाते
टूट पड़ते थे उस पर
बेड़ू ने कभी
ऊर्जा का ह्रास नहीं होने दिया

नापते थे
नन्हे-नन्हे कदम
दुपहरी में
स्कूल से घर तक
पथरीली राहों को
सूख जाते थे
होंठ-जीभ-गला
घिङारू ने कभी
प्यास का आभास नहीं होने दिया

इसीलिए
तम्हारा
मुझे
आड़ू-बेड़ू-घिङारू कहना
उतना आहत नहीं करता
जितना
अपने ‘आड़ू-बेड़ू-घिङारू’ का
अपनी जमीन से
विलुप्त होते जाना
और
उदार आयातित
‘पॉलिश्ड सेब’ का
गली-गाँव-कूचे तक
छा जाना।

(आड़ू-बेड़ू-घिङारू - पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले गरीब के फल और व्यक्ति को हेय दर्शाने वाला लोक प्रचलित मुहावरा।)