भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आतंकवाद / पूर्णिमा वर्मन
Kavita Kosh से
असंतोष की कंदराओं में
उफनता है
आतंकवाद
लावे की तरह
फूटता है
बहुमंज़िली इमारतों पर
आग और धुएँ के साथ
लेटे हुए प्राण
असंख्य निर्दोष लोगों के
आतंक!
जो सत्तावाद, अव्यवस्था
और असमानता से जन्मता है
घना होता है
आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक दमन से
हवा पाता है
दिशाहीन सरकारों
और
लोलुप राजनीतिज्ञों से
बरसों-बरसों-बरसों
कोई इसे देखना नहीं चाहता
सब आँखें बंद रखना चाहते हैं
धृतराष्ट्र की तरह
जब तक
यह फूटता नहीं
वज्रास्त्र की तरह
आकाश से...