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आतम गियान / अरुणाभ सौरभ

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अपने ख़ून को पानी समझ
किसी मान्द में दुबककर खुजलाते रहो काँख
भेड़िये, साँप या भूखे शेर के मानिन्द
 किसी जलाशय में नदी में
उतरकर अनन्त काल तक जल समाधि में
लीन होकर त्याग दो प्राण

हत्या के बाद ज़मीन पर गिरे ख़ून, मांस और लोथड़े
कटे फल के टुकड़े सा महसूसना है
जिन्हे देखकर आन्तरिक तपोबल जागृत होगा

हम अपने कुनबे, दड़बे में छिपे लोग जिनकी कोई माँग नहीं
एक अमरफल लाने निकले हैं
अगम के पार
निगम के पार
सत के पार
असत के पार
लोकतन्त्र को बैताल की तरह अपने कन्धों पर लादकर
कथा सुन रहे हैं राजा विक्रम की तरह

भयानक चीख़ का नाम है हमारा समय
अनगिन सवालों से टकराने से पहले
अपने बच्चे को जी भर चूम लिया जाए !