भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आता नहीं पलट के कोई पल गया हुआ / दरवेश भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आता नहीं पलट के कोई पल गया हुआ
एक-एक लफ़्ज़ याद है उनका कहा हुआ

दर-दर झुका रहा जो सदा इक ज़माने से
उस सर को देखिये है वो कैसे उठा हुआ

तहरीर उसके ख़त की रुलाती रही बहुत
ख़त था कि कोई अश्कों से ख़ाका बना हुआ

धुंधला चुकी थी उससे तो पहचान तक मेरी
इक दिन जो दिल के दर पे मिला झाँकता हुआ

याद आये यूँ वो गुज़रे हुए लम्हे बार-बार
भरने को था जो ज़ख़्म वही फिर हरा हुआ

बतला रही हैं खुद-ब-खुद आँखें झुकी हुई
राहे-वफ़ा में कौन था जो बेवफ़ा हुआ

मस्रूरो-मुत्मइन हैं शिकायत नहीं कोई
उनकी इनायतों से है जो भी अता हुआ

अपना-पराया कौन है ,अच्छा-बुरा है कौन
इस ख़ुदग़रज़ जहां में ये इक मस्अला हुआ

उसने भी तो भुला दिया तू जिसका था अज़ीज़
'दरवेश' क्या मिला जो शिकारे-अना हुआ