भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आती हुई रेलगाड़ी / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
रात के बढऩे के साथ गिरता जाता है तापक्रम
और नींद से सुस्त पड़े लोग
ढुलक जाते हैं दीवारों के सहारे इधर-उधर।
हालांकि यह खुली हुई नींद है,
जो कर रही होती है इंतजार
ओस से भींगी किसी रेलगाड़ी के आने का
जो आती है, रुकती है
और बढ़ाती है हाथ उनकी तरफ
जैसे यह उनके परिचितों की हो
और ढेर सारे लोग अपने सामानों के साथ
हो जाते हैं विदा, दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने।
लेकिन बचे हैं अभी बहुत सारे लोग
जिन्हें दूर तक जाना है
उनके बीच तनाव है,
गाड़ी अभी दो घंटे लेट है।
वे झांकते हैं बाहर
और अपना गुस्सा उतारते हैं रेल की पटरियों पर
फिर वापस पड़ जाते हैं सुस्त
जैसे इसका कोई उपाय नहीं,
अभी नींद से जागते रहना
चिल्लाने से अधिक जरूरी काम है।