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आतुर न होहु ऊधौ आवति दिबारी अवै / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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आतुर न होहु ऊधौ आवति दिबारी अवै
वैसियै पुरंदर-कृपा जौ लहि जाइगी ।
होत नर ब्रह्म-ज्ञान सौं बतावत जो
कछु इहि नीति को प्रतीति गहि जाइगी ॥
गिरिवर धारि जौ उबारि ब्रज लीन्यौ बलि
तौ तौ भाँति काहूँ यह बात रहि जाइगी ।
नातरु हमारी भारी बिरह-बलाय-संग
सारी ब्रह्म-ज्ञानता तिहारी बहि जाइगी ॥85॥