भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आते-आते रह जाते हो / माखनलाल चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

’आते-आते रह जाते हो,
जाते-जाते दीख रहे
आँखें लाल दिखाते जाते
चित्त लुभाते दीख रहे।

दीख रहे पावनतर बनने
की धुन के मतवाले-से
दीख रहे करुणा-मंदिर से
प्यारे देश निकाले-से।

दोषी हूँ, क्या जीने का
अधिकार नहीं दोगे मुझको?
होने को बलिहार, पदों का
प्यार नहीं दोगे मुझको?