भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आते हो तुम बार-बार प्रभु! मेरे मन-मन्दिरके द्वार / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आते हो तुम बार-बार प्रभु! मेरे मन-मन्दिर के द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥
’खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काम में हूँ, सरकार।
फिर आना’-झटपट मैं घर के कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय! तुम न ऊबते, तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारा में बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥