आत्मकथा / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
हम जीवितों की तरह कभी जिये ही नहीं;
हमें बलात् जिलाया गया!
बात हमारे गले कुछ उतरी ही नहीं,
बाँस की नाल से, जबरदस्ती,
हमें सब कुछ बना-बनाया पिलाया गया!
मोती की आब-से, हम कभी अपनी हँसी हँसे ही नहीं,
हमें गुदगुदी करके हँसाया गया!
गन्ध-भीने चाँदनी पवन-से हम कभी चले ही नहीं
कानून की धारा-उपधारा-
और परिच्छेद के हण्टर से हमें चलाया गया!
जीवन-भर-
हाथ में एक वाचाल झुनझुना हिलाते,
मुँह पर भोंपू दबा,
सिर पर एक लम्बी नोकदार टोपी लगाये,
अष्टावक्री काया पर रंग-विरंगी कंथा ओढ़े,
विदूषक की तरह हम हँसते रहे और हँसाते रहे,
गाने में रोते रहे, और रोने में गाते रहे!
बचपन से हमें सिखाया गया कि तुम सृष्टि के सिरमौर हो,
और अब आकाश ने प्रतिध्वनि में कह दिया-
कि तुम ढोर हो!
एक मशीन के पुर्जे की तरह-
दाएँ और बाएँ, आगे और पीछे,
ऊपर और नीचे,
एक बनी-बनाई अनी पर हम घूमते रहे,
पीठ पर जो चाबुक पड़ा-
उसे हम चूमते रहे!
‘‘अन्याय-महल को समूल खोद डालेंगे,
समुद्र में डुबो देंगे, रौंद डालेंगे’’
बस यों ही बकते-
सावनी सन्ध्या सा काला-पीला गुस्सा लिये,
अपनी ही दिशा में आती आँधी की ओर
अपना भौंकता मुख किये,
हम धूल व थूक उछालते रहे!
यों ही, बस यों ही जीवन पूरा हो गया!
जो मिलना था सो मिल गया, जो खोना था सो खो गया!
ऊपर-ऊपर रह तारों-जड़ आकाश से,
और दुबला-बेड़ौल मुख आलोकित रख हास से,
नीचे मन में, गहरे भीतर-भीतर
समुद्री बगूले व बवण्डर पालते रहे!
नमस्ते, वन्दन और प्रणाम की अपनी कोमल थापों से-
हम एक नपुंसक संस्कृति का रूप ढालते रहे!