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आत्महत्या / नवीन दवे मनावत

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कितनी खतरनाक वेला होगी
जब पहली बार
गढ़ी होगी
आत्महत्या की परिभाषा!
उस समय
कितनी रोई होगी
ख्वाहिसें
और
टूटकर बिखरे होंगे
अधूरें सपनें

जब पहली बार दिया होगा
अंजाम
किसी के द्वारा
तब कंपन हुई होगी धरती
चिल्लाया होगा आकाश
फूट-फूटकर रोया होगा समुद्र
रूक गया होगा लहरों का उत्साह
और अलग हो गई थी
उसकी बुंद
जो कुछ क्षण मौन हो
थिरक कर समा गई होगी
पाताल में

परिवेश के बंधन
जकड़न अक्सर
मजबूर कर देते है
लाद देते है अनसुलझे असीम प्रश्न
जिसका जबाव
दे सकती केवल आत्महत्या
या अनिर्णित आत्मकथा

रोज़ की तरह
गुहार है, तड़प है
कड़वें कटाक्ष करती बातें है
घूटन है,
पर समर्पण नहीं

तभी सहमी-सी
आत्महत्या
अचंभित हो बोली
मुझे कोई मतलब नहीं आदमी से
पर उसकी 'तड़प' बोल रही थी
सहानुभूति चाहिए!
संवेदना चाहिए!
स्नेह की मधुर झिड़की चाहिए!
समन्वय चाहिए!
अंतिम में बोली कि
नहीं चाहिए संवेदनहीन मानव
नहीं चाहिए अलगाव
नहीं चाहिए टूटन
नहीं चाहिए अनसुलझे
परिवेश के बंधन

मेरा प्रश्न एक ही है
कि आत्महत्या सम्मान नहीं करती
किसी का
गले नहीं लगाती
वह स्वयं हंसती है
आदमी की कायरता और
अधूरें सपनो पर
जो निश्चित पूरे करने योग्य थे