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आत्मा का मुक्त पंछी फिर किलोरें भर रहा है / मंजुला सक्सेना
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आत्मा का मुक्त पंछी फिर किलोरें भर रहा है
काट कर हर पाश को फिर उड़ रहा है ।
जाल माया के बिछाए प्रेमियों ने और
नोचे पंख कोमल भावना के ।
छटपटाता आहत-सा पंछी रो रहा था
वेदना की वादियों में खो रहा था ।
पर सुरीली तान ने उसको छुआ यों
भूल उर की वेदना फिर जी उठा वह
व्योम से उतरा नए सन्देश लेकर
नाचते-गाते सुरों में राग भर कर
पंख फैलाए थिरकते मोरनी व मोर
ले उड़े संग आसमान की ओर
जग है एक सपना भुला दो मीत मेरे
उड़ चलो, उड़ते चलो संग मीत मेरे ।
रचनाकाल : 19 मार्च 2008