आत्मा का रखवाला / श्रीविलास सिंह
आने वाली पीढ़ियाँ
कृतघ्न होंगी,
नहीं जानते थे आइंस्टीन।
उन्हें संदेह न था लेश मात्र कि
वे इस पृथ्वी पर
हाड़ मांस के उस आदमी के
होने पर आश्चर्य करने की बजाय
हर पल
लिप्त होंगी
उसे मिटा डालने की
जुगत में।
लेकिन
इतिहास बोध से शून्य
हत्यारों को चौंकाता
वह अधंनगा फ़क़ीर
बार बार आश्चर्यजनक रूप से
आ कर खड़ा हो जाएगा
अपने बधिकों के सन्मुख
हे राम कहता
उनकी अंतरात्मा का
रक्षक बन कर,
जब जब वह
होगी किसी
अंतर्द्वंद का शिकार।
वे अपने पागलपन में
जब वार कर रहे होंगे
उसके व्रतदग्ध कृश शरीर पर
अपनी सुलगती घृणा के
हथियारों से,
अज्ञान के अंधेरों से आवृत
वे जानते नहीं होंगे कि
वह शरीर तो रहा ही नहीं,
वह तो कब का घुल चुका है
विचार बन कर
इस महान देश की
मनीषा में और
नहीं की जा सकती
विचारों की हत्या।
वे नहीं समझ सकते कि
वह कर रहा था
प्रार्थना
उनके लिए ही
ठीक उसी समय
जब वे पूरी निर्दयता से
छलनी कर रहे थे उसके सीने को।
हत्यारों के लिए
हिंसा ही सबसे बड़ा साहस होती है
और सबसे श्रेष्ठ साधन भी।
पर उस बूढ़े ने सिखाया था
सारी दुनियाँ को कि
हिंसा है निकृष्टतम रूप
कायरता का और
वीरता उपजती है
अहिंसा के आत्मबल से।
वह सबसे बड़ा उत्तराधिकारी था
राम का, कृष्ण का
और गौतम का।
प्रहरी था
इस प्राचीन देश की
अधुनातन विचार मनीषा का,
ध्वजवाहक था
अन्याय के विरुद्ध न्याय का,
असत्य के विरुद्ध सत्य का,
असमानता के विरुद्ध बराबरी का,
हिंसा के विरुद्ध अहिंसा का और
घृणा के विरुद्ध प्रेम का,
वह सत्य द्रष्टा ऋषि था
वही सत्य
जिसे देखने को
झांकना पड़ता है
आत्मा कि गहराइयों तक,
और होना पड़ता है
अपना दीपक स्वयं ही।
नहीं हुई थी पूरी
उसकी हत्या कि योजना
जनवरी की उसी सुबह।
उसे मारने के प्रयत्न
किये जाते हैं रोज ब रोज।
परंतु
अपने मान अपमान से निस्पृह
वह विचित्र बूढा
आज भी डटा हुआ है
पीटरमारिट्ज़बर्ग के उसी
सूने प्लेटफार्म पर
बेआवाजों की आवाज़ बना हुआ
अत्याचारियों की
आंखों में आँखें डाले
प्रतिरोध की
रचनात्मकता के साथ।
हो सकता है
उसका सत्य और अहिंसा का आग्रह
न लगे ग्लैमरस
और उतना रूमानी भी
पर समय के पन्नों पर
जगमगा रही है
इन अजनबी हथियारों की चमक
जिस चमक ने
भर दी थी ऊर्जा
लाखों थके हारे निराश लोगों में
और
जिनके कदमों की
जुम्बिश से
हिलने लगी थी दीवारें
दुनियाँ के सबसे बड़े साम्राज्य की।
वे कभी समझ नहीं सकते कि
जब वे नफरत और
अलगाव की
दीवारों के पीछे छिपे
अपने मौके की घात में
तेज कर रहे थे अपने पंजे,
वह स्वप्नद्रष्टा
खड़ा था
संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में
नोवाखाली से दिल्ली तक,
बिहार से पंजाब तक
घृणा कि लपटों के
ठीक मध्य अडिग, निष्कंप
अपने आत्मबल की
लाठी के सहारे।
उनके धर्म और संस्कृति के
तमाम खोखले नारों के बीच
वह मूर्त रूप था
भारत की आत्मा का
धर्म और संस्कृति के
श्रेष्ठतम रूप का।
उसने एक बार फिर
स्थापित की थी
सबसे निचले पायदान पर खडे
आदमी की अहमियत
और चमत्कृत कर दिया था
दुनियाँ को
कमजोर आदमी की शक्ति से।
उसकी लकीर से बड़ी
लकीर खींचने
या फिर
उसको मिटाने के चक्कर में
कइयों ने कर लिए हैं काले
अपने हाथ और मुंह।
वह राजघाट के
पत्थरों के नीचे सोया
एक नश्वर शरीर
कभी न था
जिसे मिटा देती
किसी निर्मम हत्यारे की गोली
किसी दुर्भाग्यपूर्ण दिन,
वह तो राग और द्वेष,
प्रेम और घृणा,
जीवन और मृत्यु से परे
कब का समा चुका है
हमारे भीतर
सांस बन कर
और इस महान संस्कृति की
आत्मा का दर्पण बन
बिखर गया है
रोशनी की तरह
धरती पर।
अपने उद्वेलित हृदय पर
हाथ रखो
आँखें बंद कर अपने भीतर झांको
घृणा कि काई के नीचे
वह तरंगित मिलेगा
तुम्हारी अंतसचेतना में
प्रेम की शीतल धारा सा।