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आत्मा की गुल्लक / धर्मेन्द्र पारे
Kavita Kosh से
तुम तो मुझे भूल चुकी होगी
विस्मृति के बाज़ार में
मैं अब तक नहीं भूला हूँ तुम्हें
मेरे पास आख़िरी सिक्का है
याद का
जिसे हर दुर्दिन में सम्भाल कर
रखा है मैंने
हालाँकि सिवनी मालवा में मुझे
अब कोई याद नहीम करता
सचमुच ऎसा ही लगता है
जैसे शून्य हो ब्रह्माण्ड
ज़िन्दगी में कभी खर्च का नहीं
सोचा इस सिक्के को
सुना है ऎसी मुद्राएँ
अब चलन से बाहर हो रही हैं