भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्मा को खोजते हुए / राजेश्वर वशिष्ठ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आसमान पर भटक रहे थे बादल, जैसे मन में भटकता है दुःख । सूरज की किरणें बेचैनी से समेट रही थी अपना जाल किसी निराश शिकारी की तरह । मन की वेदना उडी जा रही थी मेरे साथ। इतने सारे सहयात्रियों के बीच मैं बिलकुल अकेला था । पर मैंने बहुत सम्भाल कर रखी थी तुम्हारी याद जो किसी रत्न सी जड़ी थी मेरे हृदय में ।

मुझे नहीं मालूम मुझसे कितनी दूर थी पृथ्वी, कितनी दूर था चाँद और कितनी दूर थे आकाशगंगा के सारे ग्रह । मुझे मालूम था एक पहाड़ है मेरे भीतर जिससे फूटती हैं कई धाराएँ और बहती चली जाती हैं उस समुद्र तक जिसमें भरा है तुम्हारी आँखों का खारा जल । मैं प्रवाल की तरह बिछ जाता हूँ उस समुद्र के नीचे, पड़े रहने के लिए कई शताब्दियों तक । यही तो है मेरा और तुम्हारा सम्बन्ध ।

बज रहे हैं ढाक और मंजीरे । उस विपुल कोलाहल में सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़ । आकाश में, बादलों के लिहाफ़ से धीरे से मुँह निकालता है चाँद। मेरी ही तरह उसकी आत्मा भी स्पन्दित होती है तुम्हारी वाणी से ।

महामाया उदास मत होना कभी, मैं कैसे जी पाऊँगा आत्मा के बिना ।

किसने कहा आत्मा रहती है शरीर में, मैं तो युगों से देख रहा हूँ अपनी आत्मा तुम्हारी मुस्कराहट में ।