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आत्मा नहीं देह तडपती है बिस्तर पर / प्रभात त्रिपाठी

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आत्मा नहीं
देह तड़पती है बिस्तर पर
अविनाशी आत्मा का गीत गाते लोगो की
तस्वीरें टँगी हैं पूजा घर में
और देह लोट रही है फ़र्श पर
कराहों भरी करवटों के बीच
न कोई जगह है, न समय
दोनों से परे इस विचित्र लोक में
देह देखती है दुख का आकार
कभी मनुष्यों के चेहरों-सा स्पष्ट
कभी सितारों-सा दूर और अजनबी
एक बदहवास सिलसिले में शामिल
देह सोचती है कहाँ है मंजिल?
इस अनाप-शनाप त्यौहार की भीड़ में
कौन सा दृश्य है आख़िरी?
जिसे आँख भर देखने के बाद
वह रह जाएगी
महज एक याद
कुछ लोगों के दिल में