आत्म-नियंत्रण / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'
तुम मुझसे तब मिली सुनयने
अर्थ मिलन के बदल गये जब !
मैं तब तुम्हें चुराने पहुँचा
सब रखवाले सँभल गये जब !!
करता था जब सूर्य चिरौरी, लेता चन्द्रमा बलाएँ
साँसों में चन्दन, कपूर था, अधरों पर मादक कविताएँ
तब तुम जाने कहाँ बसी थीं, जाने और कहाँ उलझी थीं
दुनिया झुम रही थी जिन पर, तुमने वे देखी न अदाएँ
आँगन ने तब मुझे पुकारा
पाँव द्वार से निकल गये जब !
अब जब बिखर गईं सौगातें, अब जब बहुत बढ़ गई दूरी
जीवन-वन में भटक रहा हूँ, हिरण खोजता ज्यों कस्तूरी
प्राण देह में यूँ अकुलाते जैसे नागफनी पर शबनम
तन को हवनकुंड कर डाला, मन की बेल रही अंगूरी
कैसे आत्म-नियंत्रण होता
अवयव सारे मचल गये जब !!
हवस बहुत है, साघन कम हैं, रहीं अतृप्त अधम इच्छाएँ
इंद्रधनुष उस पार उगा है, हैं इस तट पर घोर घटाएँ
मैंने चाहा बहुत मोड़ दूँ जीवन-सरिता के बहाव को
वश न चला कुछ, धँसी हुई थीं हस्त-लकीरों में कुंठाएँ
मैंने खुद़ को तब पहचाना
दर्पण सारे दहल गये जब !!