आत्म-परिचय / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
मैं उनका कवि, जो जीवन भर, जलते ही रह गये खेत में,
लिये कारवाँ चले कभी तो चलते ही रह गये रेत में!
जिनकी राह-राह पर काँटे,
जो जीवन भर आँसू बाँटे,
चुम्बन देकर पाये चाँटे,
दीप जलाने लगे कभी तो सदा जलाते चले गये जो,
मैं उनका कवि, स्वयं जले तो ज्योति जगाते चले गये जो!
जिन पर जग उपहास कर रहा,
जिनके मन का आस मर रहा,
जिन्हें जमाना नाश कर रहा,
नयी दिशा की ओर बढ़े तो बढ़ना ही अविराम हो गया,
मैं उनका कवि, मर जाने पर 'रहबर' जिनका नाम हो गया!
मैं प्रतिनिधि भूखे-प्यासों का,
एक लक्ष्य कटु उपहासों का,
लिये साथ कुछ विश्वासों का,
एक अकेला पंथी पथ का, सबको अपना मान रहा मैं,
कुम्भकार निर्माण-चाक का! बिखरी मिट्टी सान रहा मैं!
तन्तु-तन्तु को जोड़ रहा हूँ,
अणु में जीवन छोड़ रहा हूँ,
बना नया ही मोड़ रहा हूँ,
चिता-धूलि में नये जागरण बोने यहाँ चला आया हूँ,
पत्थर की छाती पर अपने मन का मोम गला आया हूँ!
हर काँटे को मीत बनाता,
हर पीड़ा को गीत बनाता,
नाम हार का जीत बनाता,
एक मुसाफ़िर हूँ दुनिया का, जाना जिसका कर्म बन गया,
मैं उनका कवि, जलकर जिनका गीला कोमल मर्म बन गया!
साथी हूँ पथ के भूलों का,
मृदुल-प्राण में वनफूलों का,
पता लगाता हूँ कूलों का,
बिना लिये पतवार लहर का नाविक मैं पागल, मतवाला,
बाँध रहा पगली लहरों के जूड़े में बाँहों की माला!
लहर-लहर से मुझे प्यार है,
यहाँ न कोई जीत-हार है,
जो है बढ़ने की बयार है,
सागर में भी गीतों का ही अंश मिला तो ज्वार बन गया,
मैं उनका कवि, जिनका आँसू पिघला तो अंगार बन गया!
मैं अँगारों की वाणी हूँ,
हिम-गिरी के मन का पानी हूँ,
विश्व-प्रगति का अभिमानी हूँ,
लिया कैद में जन्म और निकला तो जग घरबार हो गया,
निकला था चुपचाप, चला तो जग में हाहाकर हो गया!
सपने भी साकार बन गए, आहों के आकार बन गए,
फूल कभी अँगार बन गए,
कभी पिघलकर पत्थर का भी सीना मुसलाधार हो गया,
जिस-जिस पतझड़ से मैं गुजरा सबका हीँ शृंगार हो गया!
मैं दुखिया माँ की आशा हूँ,
घायल माँ की अभिलाषा हूँ,
जनम-जनम का मैं प्यासा हूँ
सबकी प्यास बुझे तब पीयें, यह जिसका अरमान बन गया,
मैं उनका कवि, जिनके श्रम से फसल उगी, खलिहान बन गया!
मैं कवि रोते-भिखमंगों का,
घिसते-पिसते अधनंगों का,
अंधों का, बहरों, गूंगों का,
कभी कहीं मुख खोल न पाये उनको नशा पिला सकता हूँ
कवि हूँ शोषित का!
शोषण के घर में आग जिला सकता हूँ!
मैं हूँ पाँव बढ़ानेवाला,
नई डगर पर जानेवाला,
आँधी को दुलरानेवाला,
बना न्याय का प्रबल समर्थक, मरना भी स्वीकार करूँगा,
न्याय मरा तो इसी कलम को घिस-घिसकर तलवार करूँगा!
जीभ कटे मत सत्य छोड़ना,
हर फिसले से नेह जोड़ना,
जोड़ जुल्म का मूल कोड़ना,
मैं असली चाणक्य! कूश की जड़ में मट्ठा डाल रहा हूँ,
खुली हुई है शिखा, युगों से दर्द प्रगति का पाल रहा हूँ
!
लू-लपटों में जीते जाना,
विष के प्याले पीते जाना, हर दरार को सीते जाना,
ऐसा जिसका लक्ष्य, वही तो कभी अमर आधार बनेगा,
मैं उनका कवि जो मिटकर भी नयनों में साकार बनेगा!
तोड़ रूढ़ि के निर्मम बन्धन, मिटा स्वार्थ का अविरल क्रंदन
भरे विश्व में सुखद नयापन,
संघर्षो में जीनेवाला राही, युग-हुंकार बनेगा,
माटी का दिया जल-जलकर पावन ज्योतिर्धार बनेगा!
मैं कवि गाँव, कुदाल, हलों का,
मैं कवि गेंहूँ की फसलों का,
मानवता के हर पगलों का,
मानवता की फसल उगी तो एक नया संसार बन गया,
मैं उनका कवि, जिनका जीवन सागर में पतवार बन गया!
मिटा मिटा कर टीले, खाई
समतल की आशा मुसकाई,
पंथी की पग्ध्वनि फिर आई,
जादू की परछाईं जिस पर पड़ जाये, वह हरा हो गया!
मैं उनका कवि, जिस शहीद के बल पर मानव खड़ा हो गया!
गाना होगा महाप्रलय को,
निकल मानवों! विश्व विजय को,
मिटा विश्व के भय-विस्मय को
चलनेवाले हर राही का साथी हूँ, पथ का प्यारा हूँ, शोषित मानव के सीने की आहों से निकला नारा हूँ!
ऊँच नीच का भेद मिटाकर,
मानवता को सुधा पिलाकर,
बढ़ना होगा पाँव बढ़ाकर,
जिस जिस में पथ पर बढ़ने का यह जलता अभ्यास बन गया,
मैं उनका कवि जिनके बल पर सर्जन फला, इतिहास बन गया!