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आत्म-बोध / भाग 1 / मृदुल कीर्ति

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आत्म-बोध तिन हित, जिज्ञासु, जन मुमुक्ष जो ज्ञान पिपासु
वृत्ति तपस्वी, पाप विहीना, शांत वीतराग चित कीना ॥१॥

आत्म-ज्ञान बिनु मोक्ष न होई, आत्म-बोध एक साधन सोई
जस बिनु अनल पके नहीं भोजन, तस बिनु ज्ञान न मोक्ष मिळत जन॥२॥

करम सों होत न कोऊ सुजाना, करम सों मिटत नाहीं अज्ञाना,
केवल आत्म-ज्ञान उपचारा, जस उजास नासत अँधियारा ॥३॥

आत्म-ज्ञान परिछिन्न हैं तिनको, ज्ञान विहीन जना, जो उनको
जलद हटत रवि होत उजासू, ज्ञान उदय आतमा प्रकासू ॥४॥

ज्ञानाभ्यास सतत करि जोई, निर्मल जीव ज्ञान मय होई.
कटकरेणु वत स्वतः उज्ज्वला, ब्रह्म-ज्ञान अथ जीव निर्मला॥५॥

जगत स्वप्न-वत, मोह प्रबंधा, राग-द्वेष के संकुल बन्धा,
जेहि क्षण सत्य ज्ञान होई जीवा, असत मिटत सत भवत सजीवा॥६॥

ब्रह्म अनन्य सृष्टि आधारा, भूलत सत जग लागत सारा
सीपी रजत भ्रमित तदरूपा, असत जगत, सत-ब्रह्म अरूपा॥७॥

उपादान प्रभु अखिलाधारे, सृजन, सृष्टि, स्थिति लय सारे,
जल मांहीं एक बुलबुले जैसा, जगत क्षणिक, क्षय-माण है, ऐसा॥८॥

बहु भूषन पर कनक आधारा, तस बहुरूपी जगत पसारा.
व्यापक अखिलाधार नियंता, से तस जनमत जगत अनंता॥९॥

व्यापक नभ अति अगम अरूपा, बहु उपाधि भासत तदरूपा,
हृषीकेश विभु, लगत अनेका, ज्ञान उजास दिखत एकरूपा॥१०॥