आत्म-बोध / भाग 3 / मृदुल कीर्ति
दीखत नभ बहु रंग विधाना, कारण दोष दृष्टि अज्ञाना,
देह इन्द्रियन के सब करमा, समुझत मूढ़ आतमा धरमा॥२१॥
जदपि चन्द्र स्थिर नभ मांही, लगत चलत चंचल जल मांहीं.
अस माया मति भ्रम अज्ञाना, लगत, आतमा करम प्रधाना॥२२॥
सुख-दुःख, इच्छा, राग अनेका, भासत जब तक जगत विवेका,
जब सुषुप्ति, आभास विहीना, सिद्ध आतमा, करम न कीना॥२३॥
जल शीतल, रवि ज्योति स्वरूपा, उष्म अग्नि स्व वृत्ति रूपा,
अस ही आतमा वृत्ति उज्ज्वला, सत-चित-आनंद नित्य निर्मला॥२४॥
आत्म-तत्व अस्तित्व चेतना, काल, बुद्धि, मन वहाँ एक ना,
मन बुद्धि को सकल पसारा, बिनु विवेक 'मैं और ममकारा॥२४॥
अहं भाव भ्रम मूल अहंता, आत्म-तत्व एकमेव नियंता.
आत्म तत्व निरपेक्ष, अकर्ता, मन बुद्धि ही कर्ता-भर्ता॥२६॥
सर्प को भ्रम रसरी में होई, जीव भ्रमित , भयभीत भी होई.
आत्म रूप निज जीव न जाना, आत्म-ज्ञान बिनु भ्रम विधि नाना॥२७॥
दिखत पात्र जब दीप प्रकासा, अथ चेतन से जड़ आभासा.
शुद्ध रूप चैतन्य प्रकासा, जड़, मन-बुद्धि करत उजासा॥२८॥
स्वयं प्रकाशित आतम सत्ता, स्वयं आत्म-भू आत्म इयत्ता
ज्वलित दीप जो हो पहले से, नहीं प्रयोजन अन्य जले से॥२९॥
परमात्मा जीवात्मा दोऊ, एक अभिन्न, सों भिन्न न कोऊ.
महावाक्य वेदन के कथ्या, नेति -नेति से पुष्टित तथ्या॥३०॥