भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्म-बोध / भाग 6 / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तजत मोह, माया और रागा, जीवन मुक्ता जगत विरागा,
आत्मानंद प्रकाशित होई, जस घट भीतर दीपक जोई॥५१॥

योगी जीवन मुक्त असंगा, लिप्त न नेकहूँ जगत प्रसंगा.
रहत व्योम, वायु वत योगी, ब्रह्म योग, पर जगत वियोगी॥५२॥

सकल उपाधि आदि नसावे, सतत ब्रह्म को ध्यानी ध्यावे,
जल में जल , ज्योति में ज्योति. ब्रह्म में ब्रह्म विलय गति होती॥५३॥

ब्रह्म परात्पर अंतिम सत्ता, तासों परे न कोई इयत्ता,
ब्रह्म ज्ञान सों परे न ज्ञाना, पूर्ण-पूर्ण परिपूर्ण प्रमाना॥५४॥

ब्रह्म ज्ञान जानत सत सोई, ताको पुनि कोऊ जनम न होई
दृश्य, पावना ज्ञान न शेषा, ब्रह्म ज्ञान महि महत विशेषा॥५५॥

ब्रह्म अद्वैत्य, अनन्य, असीमा, शाश्वत , सत-चित-आनंद महिमा
व्यापक ब्रह्म, अनंत अनादि, एकमे परब्रह्म उपाधि॥५६॥

अव्यय ब्रह्म, अद्वैत्य है तथ्या, अगम, अदृश्य, उपनिषद कथ्या,
'नेति-नेति ' पावत सत रूपा, एक अखण्ड, आनंद स्वरूपा॥५७॥

ब्रह्म अखंडानंद एकमेवा, कण भर शक्ति ही पावत देवा,
क्षमता भर, देवों की क्षमता, तदनुसार देवों की प्रभुता॥५८॥

ब्रह्म तत्व सब सृष्टि पसारा, व्यापक अणु-कण अपरम्पारा.
क्षीरे घृत जस, तस ही ब्रह्मा, अणु-कण-कण , ब्रह्माण्ड अगम्या॥५९॥

ब्रह्म सूक्ष्म ना ही स्थूला, दीर्घ न लघु , परिवर्तन शीला.
रंग-रूप गुण नाम विहीना, को समरथ जी वर्णन कीना॥६०॥