आत्म कथ्य / विमल राजस्थानी
कुछ नहीं किया ?
व्यर्थ ही जिया ?
शक्तिभर कमाया
सार्थक लुटाया
युगल बढ़ाये हेतु
शून्य हाथ आया
अर्धांगिनी रोयी
मुँह ढाँप सोयी
चीखी-चिल्लाई
गालियाँ सुनाई
किया अनसुना
अपना सिर धुना
उसका भी छीना
बहाया पसीना
सर्वस्व वारा
जीवन सँवारा
शांत की क्षुधा
बाँटी थी सुधा
अमृत ही दिया
स्वयं विष पिया
बहुत कुछ किया
व्यर्थ नहीं जिया
कहते हैं अपने-
जीवन भर कलम घिसी
बुनता रहा सपने
बहुत रहा सपने
बहुत हुआ तो
लगा राम-नाम जपने
कुछ भी नहीं किया !
व्यर्थ ही जिया !
तोहमतें लगीं
(मर्दानगी जगी)
(पर) मौन ही रहा
कुछ नहीं कहा
उचरे बस तीन शब्द
‘छिया ! छिया !!!
छिया !!!
है यह गलत बात
दिन को मत कहो रात
बहुत कुछ किया
प्रिंस-सा जिया
खानदान को तारा
नहले पर दहला मारा
व्यर्थ नहीं जिया
बहुत कुछ किया
बहुत कुछ किया