आत्म निर्माता के स्वगत (नवाँ निशीथ) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
लो निज स्नेह-शरण में!
बहुत दूर से स्वर भरता हूँ सोयी स्वर्णकिरण में!
तन की यह बेसुध गति मन को
तुमसे दूर लिए जाती है,
संकल्पों के हर प्याले को
पथ पर चूर किये जाती है,
लुटजाता भर गरल तृषा में
मधु-संबल नूतन चिरसंचित;
भर-भर उठती विकल शिथिलता मेरे चरण-चरण में!
लो निज स्नेह-शरण में!
संधि-निमिष में पग-ध्वनि गूँजी,
नव रसवन्ती संध्या आई,
सरल साधना, -चपल किशोरी,
यौवन के पल में अलसाई!
सघन तिमिर छाने से पहले
उज्ज्वल निर्मल इन्दु उगा दो,
राख बने सपने फिर नाचें शीतल ज्योति वरण में!
लो निज स्नेह-शरण में!
जब-जब असित घटा घिर आये
पाकर इंगित अंध अमा का |
तब-तब नभ से ले करतल पर
दीप जला दो ध्रुव तारा का |
प्रात द्वार तक चलता जाए
प्राण-पथिक निज राज सुनाता,
पाने को प्रतिबिम्ब तुम्हारा स्वर्णिम सौम्य मरण में!
लो निज स्नेह-शरण में!