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आत्म निर्माता के स्वगत (पन्द्रहवाँ निशीथ) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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‘…….
ले रह हूँ मै
तुम्हारी क्षमा का सौगंध,
मेरी यह प्रतिज्ञा अब न टूटेगी,-
कि जीवन में रहोगे लक्ष मेरे
एक—‘तुम’—
एक ‘तुम’ केवल!
कि मेरी राह पर सुख और दुख में मुसकुराओगे,
साथ दोगे, मौन हो संवेदना दोगे
हँसी के,--आँसुओं के निमिष में,
एक तुम केवल!
मै सदा पहचान लूँगा – एक तुम केवल!
ह्रदय मेरा, सभी अनुभूतियाँ मानव-सुलभ, लेकर
तुम्हे ही सौप देगा, प्रेम से विह्लव!
इंगित तुम्हारा ढूंढ लेगी, साधना मेरी,
निरंतर काल की गति में |
मेरे कर्म नित्य सतत तुम्हारे विश्व का
चिरधर्म पालेंगे
मेरी कामनाएं तुम्हें करने का ह्रदय में पूर्ण बिम्बित – रहेगी चंचल!
मेरे प्राण, जीवन में, तुम्हारी स्वर्ण-वर्ण अनेक
छाया मूर्तियों में लिपट होंगे लीन,
तुम मे, एक केवल तुम, कि जो कण और क्षण में
बस रहे हो, रस रहे हो!
मै तुम्हारा दास – मै, जो एक मै केवल,--
मगर प्रतिनिधि सभी का!
ओ निखिल अनुभूति-रूप महान!
जय हे ज्योति-निर्झर, जय, अतलता-उच्चता के
व्याप्तिमय सोपान!
जय अनुभूति-रूप महान!!!